एक नादां ने दिल में जलाए हैं दीपक
न जाने क्यूँ लगता है मेरे लिए !
सुनसान राहों पर भटकती हैं
उसकी आँखें -
न जाने क्यूँ लगती हैं मेरे लिए !
दूर से देखा तो -
टक-टकी लगाए देखती रही
पास आने पर
शर्म से, उसने झुका ली आँखें अपनी
न जाने क्यूँ लगता है मेरे लिए !
रोका था उसने इशारे से, मुझे
कुछ कहने के लिए
रुकने पर
शर्म से, उसने ढँक लिया चेहरा अपना
न जाने क्यूँ लगता है मेरे लिए !
चेहरे से हाँथ हटा कर
मुझे देखा
और हंस कर -
दूर दौड़ी चली गई
न जाने क्यूँ लगता है मेरे लिए !
एक नादां ने दिल में जलाए हैं दीपक
न जाने क्यूँ लगता है मेरे लिए !!
4 comments:
कितना कुछ घटता रहता है हर ओर हमारे लिये।
शायद इसलिए कि मैं भी तो हूँ उसके लिए ....'
अच्छी रचना
आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-729:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
khubsurat rachna.....
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