आज नहीं तो कल, हम सबको मिट्टी में मिल जाना है
आज टूट जाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
तिनका तिनका, इधर उधर, हम इतना बिखरे क्यूँ हैं
गठरी बन जाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
आज टूट जाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
तिनका तिनका, इधर उधर, हम इतना बिखरे क्यूँ हैं
गठरी बन जाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
लूट - डकैती मकसद जिनका, वो बैठे हैं सिंहासन पर
उनको धक्का देने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
फिजाओं में जहर घुल रहा है, इन जहरीले दरख्तों से
इनको दफ़नाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
इनको दफ़नाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
आग लग रही मुल्क में सारे, अपने घर के ही चिरागों से
ऐंसे चिराग बुझाने से ... हम इतना डरते क्यों हैं ?
6 comments:
डरते डरते जीवन बीता,
मन का कमरा रीता रीता।
वाह जी सुंदर
बहुत ही सुन्दर!पढ़ कर ऐसा लगा कि मानो जैसे हम धीरे-धीरे डर की दुनिया से बाहर निकल रहे होँ।
डर भाग गया ।धन्यवाद ।
डर ही तो है जो हमे कुछ करने से रोकता है. सुंदर रचना. आभार.
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