Friday, November 11, 2011

बटुआ ... 'सांई महिमा' अपरम्पार है !

'सांई दरवार' में बिखरे पड़े कागज़ के तुकडे, फूल के पत्ते, पंखुड़ियां, अगरबत्ती, इत्यादि के रेपर को सेवा भाव से समेटते समय अनिल को वहीं पडा हुआ एक 'बटुआ' मिला, 'बटुआ' को देखकर अनिल अचंभित हुआ, उसने उसे जेब में रख लिया तथा परिसर की सफाई में लग गया, फैले समस्त कचड़े को उठा उठा कर उसने ले जाकर डस्टबिन में डाल दिया !

फुर्सत होते ही उसने जेब से 'बटुआ' निकाल खोलकर देखा उसमें एक-एक हजार के ढेर सारे नोटों की भरमार थी, सांथ ही कुछ छोटे छोटे नोटों के सांथ कुछ महत्वपूर्ण कार्ड व कागज़ भी रखे थे उन्हें देखते देखते - उसकी नजर एक पर्ची पर गई जिसमें पता लिखा था तथा यह भी लिखा था कि यदि जाने-अनजाने किसी को यह पर्श मिले तो कृपया नीचे लिखे पते पर संपर्क करे !

लिखे पते को पढ़कर अनिल यह तो समझ गया था कि यह 'बटुआ' उन्हीं सज्जन का है किन्तु दिमाग में उथल-पुथल इस बात को लेकर हुई कि वह पता वहां से कोसो दूर था और उसके पास वहां जाने के लिए जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी किन्तु उसने 'सांई बाबा' के चरणों में सिर झुका कर आशीर्वाद लिया तथा 'बटुआ' में रखे रुपयों की मदद से टिकिट ले ले कर वह उस सज्जन के पास पहुँच गया !

उक्त सज्जन को 'बटुआ' सौंपते हुए अनिल ने सारा किस्सा सुनाया, किस्सा सुनकर महाशय की आँखे फटी-की-फटी रह गईं, अनिल की उम्र महज सत्रह साल थी जिसकी नेक-नियती ने महाशय को अपना भक्त बना दिया ... अजब संयोग देखिये अनिल अनाथ था तथा 'सांई मंदिर' में ही सेवा कर जीवन यापन कर रहा था और दूसरी ओर जिनका 'बटुआ' उसे मिला, वह मुंबई के जाने-मानें हीरों के व्यापारी थे जो बेऔलाद थे !

कहने को तो महज एक 'बटुआ' था किन्तु किसी चमत्कार से कम नहीं था उसमें रखे नोट दोनों के लिए महत्व नहीं रखते थे क्योंकि सेठ जी तो अपने आप में सेठ थे तथा अनिल, वह तो 'सांई भक्ति' में लीन था उसे भी उन रुपयों की कोई दरकार नहीं थी ... किन्तु इस संयोग से अरवपति सेठ को बेटा और एक अनाथ को बाप मिल गया तथा इसे 'सांई महिमा' समझ दोनों एक-दूसरे की सेवा में लग गए !!

4 comments:

Deepak Saini said...

प्रेरक कहानी

प्रवीण पाण्डेय said...

ईमानदारी हमेशा अच्छी रहती है।

अनुपमा पाठक said...

महिमा ही है यह!
ॐ साईं राम!

अजित गुप्ता का कोना said...

काश ऐसे चमत्‍कार होते रहें।