Monday, October 3, 2011

... माँ से जियादा, माशूका अजीज हैं !

न आरजू, न ही मुहब्बत थी हमें उससे
सच ! हम तो यूं ही उसे आजमा रहे थे !
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दोस्ती में 'उदय' लुट गए थे हम
वरना आज कहीं और होते हम !
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'रब' जाने कब तलक संदेशे हमारे तुझ तक पहुंचेंगे
कहीं ऐंसा न हो, पहुंचते पहुंचते क़यामत आ जाए !
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सच ! हम जानते हैं, एक दिन हमें भी चले जाना है
न जाने कब तलक, मेरे अल्फाज तुम्हें छूते रहेंगे !
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हर किसी की दास्ताँ, अपनी अपनी ज़ुबानी है
कोई क्यूं सुनता नहीं उसकी, जो बे-ज़ुबानी है !
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वादा मुहब्बत का था, निभाने का नहीं था
बहुत हुई चिपका-चिपकी, अब फुर्सत नहीं है !
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मैं जागीर हूँ ऐंसी, जिसकी कोई वसीयत नहीं है
जिसका जी चाहे, जब चाहे, मुझे अपना कह दे !
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उफ़ ! रकीबों ने जनाजे की शान, खूब बढ़ाई है 'उदय'
अजीजों को कदम रखने की जगह नहीं बच पाई है !
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अगर होता तो होता, नहीं है तो नहीं है
आज मुल्क मेरा, किसी अजायबघर से कम नहीं है !
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'खुदा' जाने, क्यों सितमगर हुई हैं औलादें
जिन्हें माँ से जियादा, माशूका अजीज हैं !