Wednesday, September 28, 2011

... मौत के मंजर हैं, क्यूं न संभल के चलें !

गाँव का हरेक शख्स उदास बैठा है 'उदय'
हम रुक भी जाते, मगर जाना जरुरी है !
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वो झूठा तो है लेकिन, बड़ा शातिर खिलाड़ी है
बात ही बात में, मुझे वो अपना बाप कहता है !
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भीड़ में न सही, पर तन्हाई में सखा था
मैं कुछ तो था मगर, कुछ भी नहीं था !
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सच ! खुद को देखें, या अब देखें तुझको
मौत के मंजर हैं, क्यूं न संभल के चलें !
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कभी इसकी, कभी उसकी, जुस्तजू करते रहे हम
मगर जो सामने था, उसी से नजर फेरते रहे हम !
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न जाने कब तलक झूठे दिलासे काम आएंगे
जो हैं सामने अपने, उन्हें कब दिल से चाहेंगे !
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सच ! उलटने दो, पलटने दो, भटकने दो
उलझी उलझनों को बैठकर सुलझने दो !
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यहाँ, हर शख्स का नाम अल्ला रख्खा है
इबादत छोड़ के, हर काम में वो पक्का है !
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सारे जहां में, शुभ, शुभ, शुभ प्रभात हो
गर बात हो तो सिर्फ तेरी मेरी बात हो !
...
थक, मत, बढ़, चल, बढ़ता, चल
मत, थक, चल, चला, चल, चल !

3 comments:

Neeraj Kumar said...

नवरात्री की ढ़ेरों शुभकामनाएँ..

वाह... अच्छे शेर, मनभावन शब्द-संयोजन...

प्रवीण पाण्डेय said...

कितना संभल रहे हैं पर नित आघात लग रहे हैं।

संध्या शर्मा said...

थक, मत, बढ़, चल, बढ़ता, चल
मत, थक, चल, चला, चल, चल !

सुन्दर शब्द रचना... शुभकामनायें...