Saturday, July 16, 2011

... वरना अब नहीं मुमकिन बसर !!

सिर पटक पटक के हमने, लहु-लुहान कर लिया
उफ़ ! ये क्या लिखा तूने, जो समझ नहीं आया !
...
लिख लीं जाती हैं साहित्यिक किताबें
कभी चलते चलते, कभी रुकते रुकते !
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अब किसे इंसा कहें, और किसे शैतां कहें
मर गए इंसान थे, या मार रहे इंसान हैं !
...
दिल्ली एक मंच से बढ़कर, कहीं कुछ भी नहीं है
ये और बात है, अभी हमने कदम रक्खा नहीं है !
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ये मुफलिसी का दौर भी, अब तो बस जाने को है
जल्द ही फिजाओं में, नया परचम लहराने को है !
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बहुत हुआ, और बहुत हो गया, भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचार
बर्दास्त नहीं अब होगा हमको देश में बढ़ता अत्याचार !

...
हे 'खुदा', अब चाहिए तेरा असर
वरना अब नहीं मुमकिन बसर !
...
एक एक धमाके से हमें होश आ गया
वरना हम, हर घड़ी बेहोश फिरते थे !
...
दो घड़ी की सांस मुझको बक्श दे मेरे 'खुदा'
देख फिर कैसे वतन में इंकलाबी आयेगी !!

2 comments:

सूर्यकान्त गुप्ता said...

बहुत खूब्। किसी की भी भावना इसी तरह प्रस्फुटित होना स्वाभाविक है।

प्रवीण पाण्डेय said...

आयेगी ही।