Tuesday, June 14, 2011

असहाय लोकतंत्र ...

अब कोई, मुझे, कुछ
समझता ही नहीं है
कोई यहां से, तो कोई वहां से
मेरी भावनाओं ... आदर्शों को
तोड़ रहा है ... मरोड़ रहा है !
और तो और
कुछेक ने तो मुझे जेब में रख
घूमना - फिरना ... शुरू कर दिया है !

क्या करूं ... क्या कहूं ... किससे कहूं
ये तो कुछ भी नहीं
कुछेक धुरंधरों ने तो मुझे
खिलौना समझ, बच्चों को
खेलने ... कूदने के लिए ...
और वे, खूब मजे से
चुनाव - चुनाव ... खेल रहे हैं !

सच ! बहुत शर्मसार हुआ
पर ... अब ... सहा नहीं जाता
भ्रष्टाचार ने तो मेरा
जीना ही दुभर कर दिया है

घोंट दो ... मेरा गला घोंट दो !
सच ! मैं अमर हूँ
पर असहाय लोकतंत्र हूँ !!

5 comments:

निर्मला कपिला said...

बिलकुल सही कहा हर कोई इसे जेब मे रख कर घूम रहा है। त्रास्दी है देश की।

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

सही कहा, आज लोकतंत्र की हालात ऐसी ही है !

vandana gupta said...

सच ! मैं अमर हूँ
पर असहाय लोकतंत्र हूँ !!
असहाय लोकतंत्र की वेदना को बखूबी उतार दिया है।

प्रवीण पाण्डेय said...

घुट घुट जीना, नित विष पीना, लिखा हमारे भागों में,
जिन ज्योतों से आस लगी है, जलती नहीं चिरागों में।

Patali-The-Village said...

सही कहा, आज लोकतंत्र की हालात ऐसी ही है|