Wednesday, June 15, 2011

... न मिली उन्हें मंजिलें, और न मिले परवरदिगार !

ये दुम हैं ऐंसी, जो कभी, खुद--खुद सीधी नहीं होंगी
लोग मरें, मरते रहें, ये जहां चाहेंगे वहीं दुम हिलाएंगे !
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उम्मीदों के चिराग जला कर रक्खे थे हमने भी 'उदय'
चिराग जलते रहे, रात ढलती रही, और सब हो गई !!
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उफ़ ! कोई सांथ था भी, और कोई नहीं भी था
सफ़र यादों के थे, लुभाते रहे, सांथ चलते रहे !
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ताउम्र समेटते-सहेजते रहे, हम दौलती पत्थर
पर हम भूले थे, दफ्न होना है मिट्टी में यारा !
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जर्द पत्ते की तरह, उड़ता फिरा, फिरता फिरा
आज फिर तेरे शहर से, तर-बतर हो मैं चला !
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तू जमीं से आसमां तक, बिखरी हुई है
फिर भी, मेरी आँखों में सिमटी हुई है !
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मुर्दों को अब तुम, इतनी बेरहमी से मत कुचलो यारो
सच ! गर जान आ गई, तो जीना दुश्वार समझो यारो !
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उफ़ ! जो हश्र देख औरों के, निकले नहीं घर से डर कर
फिर न मिली उन्हें मंजिलें, और मिले परवरदिगार !
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सच ! बहुत घूमे-फिरे, जिन्दगी के सफ़र में
चले आये हैं अब हम, अपने आशियाने में !!

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