Saturday, April 9, 2011

सच ! कहां हूँ मैं, और कहाँ नहीं हूँ !

क्यों बदल दें, हम बिकने-बिकाने की परिभाषाएं
चलो मान लेते हैं, उफ़ ! बिकना इसी को कहते हैं !!
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जीतना था, जीतना तो तय था, आज नहीं तो कल
बेहद खुशी के पल हैं, समय रहते हम जीत गए !!
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लगा दो जख्मों पे, मिट्टी के लेप तुम यारो
फिर देखें कैसे नहीं रुकती, लहू की बहती ये धारा !
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पवन, गगन, धरा, जल, अग्नि, तन, मन
सच ! कहां हूँ मैं, और कहाँ नहीं हूँ !
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कब तक बारी बारी से, हम खुद को आजमाएंगे
मौक़ा हंसी है, चलो वतन पे खुद को फना कर लें !
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सच ! देश अपना है, सत्ता अपनी है, अपने लोग हैं
फिर भी कुछ लोगों को गुलामी की आदत लगी है !
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चाटुकारिता,गुलामी,गद्दारी, क्या खूब हुनर हैं 'उदय'
सच ! लोग हैं, जो करतब दिखाने के आदि हुए हैं ! !

3 comments:

Travel Trade Service said...

सच ! देश अपना है, सत्ता अपनी है, अपने लोग हैं
फिर भी कुछ लोगों को गुलामी की आदत लगी है ......बहुत बधाई उदय जी ....सुन्दर शाब्दिक कटाक्ष कविता में !!!!!!!!शुक्रिया जी

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सच में कडुआ सच ....बहुत खूब

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

लगा दो जख्मों पे, मिट्टी के लेप तुम यारो
फिर देखें कैसे नहीं रुकती, लहू की बहती ये धारा !

सच कहा आप ने उदय जी हमारी माटी में अमृत है ये हमारे माटी के लाल के हर काम में जख्म भरने को काफी है ..सुन्दर रचना

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५