Thursday, March 24, 2011

सच ! जब भी लड़ता हूँ खुद से हार जाता हूँ !!

भीड़ बढ़ती गई, काफिला भी सांथ चलता रहा
उफ़ ! कहीं कुछ थी तन्हाई जहन में, तनहा रहा !
...
ये
तो जैसे-तैसे बसर कर ही लेंगे, खानाबदोशी में जिन्दगी
पर एयरकूल्ड के बासिंदों की कैसे कटेगी जेल में जिन्दगी !
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आंकलन, बंटवारे, हकीकत, पैमाने, उफ़ ! क्या खूब सच है 'उदय'
गरीबी, नसीब, हुस्न, मोहब्बत, सबके अपने अपने मिजाज हैं !!
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कहां, किसी को दिखती है जहां में, तन्हाई मेरी
भीड़ है, धूप है, तन्हाई संग साया तो सांथ है !
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अकड़ ने जनभावनाओं को कुचलना है चाहा
जब टूट के बिखरेंगे, तो सब जान जायेंगे !
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दिल में जो उतरे हैं गर चाहें भी तो निकलें कैंसे
दिलों के जज्बों नें उन्हें, पर्दानशीं बना दिया !
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किसने रोका है जितना जी चाहे, उड़ान भरी जाए
क्यूं जमीं को आसमां से भी छोटा किया जाए !
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जज्बों, हालातों, और इरादों नें मेरी राहें बदल दीं
कहां से चला, चलते चलते, कहां गया हूँ मैं !
...
कमबख्त ये दिल भी कितना सख्त हुआ है 'उदय'
सच ! जब भी लड़ता हूँ खुद से हार जाता हूँ !!

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

स्वयं से पुनरपि लड़ना होगा।

राज भाटिय़ा said...

कमबख्त ये दिल भी कितना सख्त हुआ है 'उदय'
सच ! जब भी लड़ता हूँ खुद से हार जाता हूँ !!
ओर जिस दिन यह जंग जीट जाओगे उस दिन खुद को पा लो गे, बहुत सुंदर रचना. धन्यवाद

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

किसने रोका है जितना जी चाहे, उड़ान भरी जाए
क्यूं न जमीं को आसमां से भी छोटा किया जाए !
yah sabase achchha ...

Asif Ali said...

वाह श्याम कोरी जी, ग़ज़ब अभिव्यक्ति है.