किसी भी लेखन में, लेखक के व्यक्तित्व को तलाशना
उफ़ ! न सिर्फ लेखक, खुद के सांथ भी नाइंसाफी होगी !
...
सच ! न तो मैं गुल था, और न ही गुलाब था यारो
क्यूं आती रही खुशबु, खुद ही अनजान था यारो !
...
कहीं कुछ है जो झलकता है तेरी अदाओं में
किसी दिन तुम भी शिखर पर जरुर होगे !
...
हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, जिंदगी-मौत, सत्य-असत्य
उफ़ ! अब क्या कहें, कहीं राहें, कहीं सोचें, भटकी भटकी दिखे हैं !
...
गर रुसवा ही होना था मोहब्बत को, दर पे तिरे
हो जाने देती, तेरी खामोशियाँ देखी नहीं जातीं !
...
हमें तो हुस्न, किसी तिलस्म से कम नहीं लगता
न देखो तो पछताओ, देख लो तो फिर फंस जाओ !
...
हम बेच देंगे खुद को, चाहे कोई गुनाह ही कहे
पत्रकार हुए तो क्या, शान-शौकत नहीं होगी !
...
क्या कोई हद, दायरा, सरहद है, गुनाहों की
कहो गर है, तो एक बार में ही क्षमा कर दें !
...
मैं खुद का होकर कुछ कर नहीं पाता, जी चाहे बेच दूं
उफ़ ! मगर अफसोस, कोई खरीददार नहीं मिलता !
...
सच ! अब इबादत का मन नहीं होता 'उदय'
शहर के लोग खुद को 'खुदा' कहते फिरे हैं !!
10 comments:
बहुत बढ़िया.. सभी अच्छे हैं..
महान हैं शहर के लोग।
bahut hi khub likha hai
ईमानदार अभिव्यक्ति
हर कोई रुस्तम । वाह...
टिप्पणीपुराण और विवाह व्यवहार में- भाव, अभाव व प्रभाव की समानता.
सही है.. सब खुदा हैं अपनी नज़रों में...
सुन्दर पंक्तियाँ
आभार
चलती दुनिया पर आपके विचार का इंतज़ार
Har sher bahut hi achchha. sunder prastuti.
बहुत अच्छी ओर सुन्दर प्रस्तुति!
कुछ लोग काहे उदय जी, न खुदा अब सब लोग खुदा कहलाते है। यह अतिशयोक्ति नहीं सचाई है। तब बनाबा लिजिए अपने लिए नया इबादतगाह,,,
होली की रंगो भरी शुभकामनाऐं....
Post a Comment