Tuesday, March 15, 2011

शहर के लोग खुद को 'खुदा' कहते फिरे हैं !!

किसी भी लेखन में, लेखक के व्यक्तित्व को तलाशना
उफ़ ! सिर्फ लेखक, खुद के सांथ भी नाइंसाफी होगी !
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सच ! न तो मैं गुल था, और ही गुलाब था यारो
क्यूं आती रही खुशबु, खुद ही अनजान था यारो !
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कहीं कुछ है जो झलकता है तेरी अदाओं में
किसी दिन तुम भी शिखर पर जरुर होगे !
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हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, जिंदगी-मौत, सत्य-असत्य
उफ़ ! अब क्या कहें, कहीं राहें, कहीं सोचें, भटकी भटकी दिखे हैं !
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गर रुसवा ही होना था मोहब्बत को, दर पे तिरे
हो जाने देती, तेरी खामोशियाँ देखी नहीं जातीं !
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हमें तो हुस्न, किसी तिलस्म से कम नहीं लगता
देखो तो पछताओ, देख लो तो फिर फंस जाओ !
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हम बेच देंगे खुद को, चाहे कोई गुनाह ही कहे
पत्रकार हुए तो क्या, शान-शौकत नहीं होगी !
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क्या कोई हद, दायरा, सरहद है, गुनाहों की
कहो गर है, तो एक बार में ही क्षमा कर दें !
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मैं खुद का होकर कुछ कर नहीं पाता, जी चाहे बेच दूं
उफ़ ! मगर अफसोस, कोई खरीददार नहीं मिलता !
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सच ! अब इबादत का मन नहीं होता 'उदय'
शहर के लोग खुद को 'खुदा' कहते फिरे हैं !!

10 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बहुत बढ़िया.. सभी अच्छे हैं..

प्रवीण पाण्डेय said...

महान हैं शहर के लोग।

Kanpurpatrika said...

bahut hi khub likha hai

Neeraj said...

ईमानदार अभिव्यक्ति

Sushil Bakliwal said...

हर कोई रुस्तम । वाह...

टिप्पणीपुराण और विवाह व्यवहार में- भाव, अभाव व प्रभाव की समानता.

Pratik Maheshwari said...

सही है.. सब खुदा हैं अपनी नज़रों में...
सुन्दर पंक्तियाँ

आभार
चलती दुनिया पर आपके विचार का इंतज़ार

उपेन्द्र नाथ said...

Har sher bahut hi achchha. sunder prastuti.

राज भाटिय़ा said...

बहुत अच्छी ओर सुन्दर प्रस्तुति!

Arun sathi said...

कुछ लोग काहे उदय जी, न खुदा अब सब लोग खुदा कहलाते है। यह अतिशयोक्ति नहीं सचाई है। तब बनाबा लिजिए अपने लिए नया इबादतगाह,,,

Arun sathi said...

होली की रंगो भरी शुभकामनाऐं....