Sunday, January 16, 2011

न भी चाहेंगे, फिर भी किसी हाथ से जल जायेंगे !!

खटमल, काक्रोच, मच्छर, दीमक, मकडी, बिच्छू
हिस्से-बंटवारे में लगे हैं, लोकतंत्र असहाय हुआ है !
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छत चूह रही है, गरीब भीग रहे हैं
अमीरों ने बरसांती की दुकां खोली है !
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दीमक, फफूंद, जाले, बढ़ रहे हैं 'उदय'
लोकतंत्र रूपी कोठी, घूरा हुई जा रही है !
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उफ़ ! गजब मुफलिसी, और अजब फांकापरस्ती थी
सच ! कोई अपना, और कोई बेगाना था 'उदय' !
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आज का दौर है, बहुतों के हांथों में मशालें हैं 'उदय'
भी चाहेंगे, फिर भी किसी हाथ से जल जायेंगे !
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सरकारी मंसूबे अमीरों की कालीन पे बिखरे पड़े हैं
कोई बात नहीं, गरीब मरता है तो मर जाने दो !
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बहता दरिया हूँ, मत रोको मुझको
जब भी चाहोगे, मुझको छू लोगे !
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बेईमानों की बस्ती में, जज्बे और जज्बातों की दुकां खुल गई
मगर अफसोस, सुबह से शाम तक, कोई खरीददार नहीं आया !
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किसानों ने खून-पसीना सींच-सींच उगाई है फसल
क्या करें, सरकार और व्यापारियों में एका हो गया !
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फर्क इतना ही है, इंसा पत्थर हुए 'उदय'
जज्बात मरने को तो, कब के मर चुके हैं !
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जब उत्साह, जज्बातों के टूट के झरने लगें
गिरते कणों को सहेज, उत्साह बढाया जाए !
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सात फेरे और सात कश्में, कोई सहेज के बैठा है 'उदय'
उफ़ ! निभाने वाले, सात समुन्दर पार जा के बैठे हैं !
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तेरे आंसू, मेरे आँगन में ज़िंदा हैं आज भी
तू सही, अब उन्हें ही देख, जी रहा हूँ मैं !
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आलू, टमाटर, प्याज की दुकां शोरूम हो गईं
उफ़ ! मोल-भाव नहीं , कीमती लेबल लगे हैं !
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13 comments:

Bharat Bhushan said...

'सरकारी मंसूबे अमीरों की कालीन पे बिखरे पड़े हैं
कोई बात नहीं, गरीब मरता है तो मर जाने दो!'

आपकी पंक्तियाँ आज के हालात पर सटीक टिप्पणियाँ हैं. इस ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा.

संजय भास्‍कर said...

आलू, टमाटर, प्याज की दुकां शोरूम हो गईं
उफ़ ! मोल-भाव नहीं , कीमती लेबल लगे हैं
..........आज के हालात पर सटीक हैं

केवल राम said...

फर्क इतना ही है, इंसा पत्थर न हुए 'उदय'
जज्बात मरने को तो, कब के मर चुके हैं !
जज्बात कब के मर चुके हैं .....और हम सिर्फ जिन्दगी को ढ़ो रहे हैं ..जहाँ संवेदनाएं और जज्बात नहीं होते वहां जिन्दगी नहीं होती ....बहुत सुंदर

प्रवीण पाण्डेय said...

व्यवस्था के विष को निकालने में शब्द भी कड़वे हो गये हैं।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

हर 'दोलाइना' अलग-अलग अपने को समर्थ रूप में अभिव्यक्त कर रहा है |

Unknown said...

बेईमानों की बस्ती में, जज्बे और जज्बातों की दुकां खुल गई
मगर अफसोस, सुबह से शाम तक, कोई खरीददार नहीं आया !

BAHUT SUNDER!!! UDAY JI... BAHUT GAHRAYI SI LIKHI GAYI KAVITA!!!

JAGDISH BALI said...

करारी पंक्तियां !

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जी, धन्यवाद

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बेईमानों की बस्ती में, जज्बे और जज्बातों की दुकां खुल गई
मगर अफसोस, सुबह से शाम तक, कोई खरीददार नहीं आया !
.....

आज कल जज़्बात का कौन खरीदार हुआ है ...भावनाओं का कोई मोल ही नहीं है ..बहुत खूबसूरती से अपनी बात कही है

nilesh mathur said...

बेईमानों की बस्ती में, जज्बे और जज्बातों की दुकां खुल गई
मगर अफसोस, सुबह से शाम तक, कोई खरीददार नहीं आया !
.....वाह! क्या बात है! बेहतरीन रचना

दिगम्बर नासवा said...

छत चूह रही है, गरीब भीग रहे हैं
अमीरों ने बरसांती की दुकां खोली है ..

KYA BAT HAI ... YE TO DASTOOR HAI JAMAANE KA ...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

बहुत अच्छी रचना...सभी समस्याओं का उल्लेख किया गया है.

रचना दीक्षित said...

बेहद करारी कडवे सच को दर्शाती पोस्ट