सितम सहते रहे, खामोश रहे
कुछ कहा, गुनाह कर लिया !
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जमीं से आसमां तक, था धुंध अन्धेरा
खुशनसीबी हमारी, तुम चाँद बन के आए !
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खुशबू बिखर गई, गिरी पंखुड़ियों के संग
जब तक गुलाब था, क्या ढूँढते थे हम !
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सारी रात हम दर पे, बैठे बैठे जागते रहे
और क्या करते, तेरी नींद का ख्याल था !
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जब से मिले हो तुम, खुशियाँ ही मिल गईं
तिनके तिनके समेट, हमने घौंसले बना लिए !
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आज जो खुद को निकम्मा कह रहे हैं 'उदय'
सच ! हम जानते हैं वो बहुत समझदार हैं !
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शुक्र है मिरे रक्त ने, कुछ असर तो दिखाया
चलते चलते राह में, अजनबी को हंसाया !
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पलकें सिहर गईं थीं, तिरे इंतज़ार में
जब आना नहीं था, फिर वादा ही क्यूं किया !
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कैंसे मिले थे तुम, और कैंसे बिछड़ गए
अब यादें समेट के, चला जा रहा हूँ मैं !
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वक्त ने क्यों, हमें इतना बदल दिया
शैतां लग रहे हैं, खुद आईने में हम !
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गूंगों के हाथ में सत्ता की डोर है
अंधों की मौज है, बहरों की मौज है !
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चले आना अब, दबे पाँव तुम 'उदय'
नींद सी आने लगी है, इंतज़ार में !
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आबरू हो रही थी तार तार, सब कान सटाए बैठे थे
गूंगी थी, उफ़ ! चिल्लाती भी तो चिल्लाती कैसे !
15 comments:
चले आना अब, दबे पाँव तुम 'उदय'
नींद सी आने लगी है, इंतज़ार में !
वाह! उदय भाई, हृदय स्पर्शी पंक्तियां।
गूंगों के हाथ में सत्ता की डोर है
अंधों की मौज है, बहरों की मौज है !
बेहतरीन रचना। बधाई।
सुन्दर, बढ़िया, वाह वाह...
अच्छी रचना !!
शायरी का यह गुलदस्ता अच्छा लगा।
गूंगी भी उफ चिल्लाती भी कैसे ?
बेहतरीन गुलदस्ता...
अंधे, बहरों की बस्ती में हम गूँगों का क्या काम।
गज़ब की मर्मस्पर्शी रचना।
बेहतरीन रचना....।
बधाई...।
आबरू हो रही थी तार तार, सब कान सटाए बैठे थे
गूंगी थी, उफ़ ! चिल्लाती भी तो चिल्लाती कैसे !
एक अच्छी ओर सुंदर रचना. धन्यवाद
गूंगों के हाथ में सत्ता की डोर है
अंधों की मौज है, बहरों की मौज है !
आदरणीय उदय जी
आज की पोस्ट आपने विभिन्न रंगों से सजाई है ....हर शेर अर्थपूर्ण ....गंभीर भाव का द्योतक ...शुक्रिया
हृदय स्पर्शी पंक्तियां बेहतरीन रचना.....
खुशबू बिखर गई, गिरी पंखुड़ियों के संग
जब तक गुलाब था, क्या ढूँढते थे हम!
वाह!
हर शेर स्वयं को अभिव्यक्त कर पाने में पूर्ण सक्षम ...
बहुत सुन्दर |
BAHUT SATIK RACHNA , WAISE PYAR SE SHURU HO KAR SATTA KE PASS CHALE JAANE KA KOI ARTH?
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