एक दिन ट्रैन में यात्रा के दौरान सामने वाली सीट पर एक महाशय को सूट-बूट मे आस-पास बैठे यात्रियों के साथ टाईमपास करते देखा, वह देखने से धनवान और बातों से धनाढय जान पड रहा था, तभी एक फ़ल्ली बेचने वाला आया, कुछ यात्रियों ने ५-५ रुपये की फ़ल्लियां खरीद लीं तभी उस धनाढय महाशय ने भी फ़ल्ली वाले से २ रुपये की फ़ल्ली मांगी, फ़ल्ली वाले ने उसे सिर से पांव तक देखा और २ रु. की फ़ल्ली चौंगा मे निकाल कर देने लगा तभी महाशय ने व्याकुलतापूर्वक कहा बहुत कम फ़ल्ली दे रहे हो तब उसने कहा - सहाब मै कम से कम ५ रु. की फ़ल्ली बेचता हूं वो तो आपके सूट-बूट को देखकर २ रु. की फ़ल्ली देने तैयार हुआ हूं कोई गरीब आदमी मांगता तो मना कर देता।
वह महाशय अन्दर ही अन्दर भूख से तिलमिला रहे थे फ़िर भी कंजूसी के कारण मात्र २ रु. की ही फ़ल्ली मांग रहे थे फ़ल्ली से भरा चौंगा हाथ मे लेकर २ रु देने के लिये पेंट की जेब मे हाथ डाला तो ५००-५००, १००-१०० के नोट निकले, अन्दर रखकर दूसरी जेब मे हाथ डाला तो ५०-५०,२०-२०,१०-१० के नोट निकले, उन्हे भी अन्दर रखकर शर्ट की जेब मे हाथ डाला तो ५-५ के दो नोट निकले, एक ५ रु का नोट हाथ मे रखकर सोचने लगे तभी फ़ल्ली वाले ने कहा सहाब पैसे दो मुझे आगे जाना है, तब महाशय ने जोर से गहरी सांस ली और नोट को पुन: अपनी जेब मे रख लिया और चौंगा से दो फ़ल्ली निकाल कर चौंगा फ़ल्ली सहित वापस करते हुये बोले- ले जा तेरी फ़ल्ली नही लेना है, फ़ल्ली बाला भौंचक रह गया गुस्से भरी आंखों से महाशय को देखा और आगे चला गया।
महाशय ने हाथ मे ली हुईं दोनो फ़ल्लियों को बडे चाव से चबा-चबा कर खाया और मुस्कुरा कर चैन की सांस ली, ये नजारा देख कर त्वरित ही मेरे मन में ये बिचार बिजली की तरह कौंधा "क्या गजब का 'लम्पट बाबू' है, ..... पेट मे भूख - जेब मे नोट - क्या गजब कंजूस ....... मुफ़्त की दो फ़ल्ली खूब चबा-चबा कर ....... वा भई वाह ..... क्या कंजूस खोपडी है" तभी अचानक उस "लम्पट बाबू" की नजर मुझ पर पडी थोडा सहमते हुये वह खुद मुझसे बोला - देखो न भाई साहब २ रु खर्च होते-होते बच गये एक घंटे बाद घर पहुंच कर खाना ही तो खाना है!!! तब मुझसे भी रहा नही गया और बोल पडा - वा भई वाह क्या ख्याल है ...... लगता है सारी धन-दौलत पीठ पर बांध कर ले जाने का भरपूर इरादा है ।
27 comments:
पक्के मकान वालों के खुलते कहां हैं राज़
बेपर्दा हो ही जाती है कच्चे घरों की बात
ये तो आप बहुत ही कड़बा सच सामने लाए हैं।
हा हा हा ! मजेदार किस्सा।
फिल्म दिल देखकर पहली बार कंजूस -मक्खी चूस की परिभाषा समझ में आई थी।
बहुत मिलते है ऎसे लोग ओर फ़िर इन की जमा की ज्यादाद पर, इन के मरने के बाद दुसरे ऎश करते है
Ajeebo 'gareeb' aadmeee hoga!
कंजूस लोग ऐसे ही होते हैं .......... कोई कुछ नही कर सकता ........
Yebhee kamal shaksh hoga!
एक से बढ़कर एक लोग मिलेंगे दुनिया में
रोचक!
कैसे कैसे लोग हैं इस जहाँ में!
बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत
बहुत बहुत आभार
समझ सकती हूँ इस कहानी में झूठ का पुट जरा भी नहीं है .....मैंने तो अपने आस पास ही कई ऐसे लोग देखे हैं .....ऐसे लोगों को सिर्फ नरक मिलता है क्योंकि इन्होने दान कभी किया ही नहीं होता .....!!
श्याम कोरी जी, आदाब
अब 'चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाये' वाली कहावत
ज़िन्दा रखने के लिये
कुछ 'नमूने' तो मौजूद होने चाहिये ना
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
आपको और आपके परिवार को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजन की हार्दिक शुभकामनायें!
वाह बहुत बढ़िया लगा! बहुत खूब !
मजा आ गया गुरू.उस महान आत्मा को मेरा नमन.
क्या बात है भाई, तुम्हे दे रहा हूं कोई गरीब मांगता तो न देता ।गनीमत है जो उन्होने दो फ़ल्ली निकाल ली थी उनमे से एक आपको देते हुए नही कहा कि "लो खाओ एश करो ,अपने साथ यात्रा करोगे तो यही मजे करोगे "
bahut sahi kha hai trh trh ke log hote haiduniya me.
झकास!
इससे अच्छा शब्द तारीफ़ के लिए नहीं मिला.
ट्रेन कि यात्रा ने साहित्यकारों को अद्भुत साहित्य की सौगात दी है.कोई उसे सहेज कर संस्मरण बना देता है कोई कविता या कहानी. बड़ी बात तो महसूस करने और सहेजने की है.
प्रेरक संस्मरण लिखने के लिए बधाई.
aisa bhee hota hai aise hee log shayad makheechoos bhee kahlate hai. kash ye ehsaas ho jaye ki sath kuch nahee jana .
मज़ेदार किस्सा. होते हैं ऐसे लोग भी.
संवेदनशील घटना की बढ़िया प्रस्तुति .....
श्याम जी यह दृश्य लगभग हर जगह देखने को मिल जाती है कई महिलाओं को देखा है सब्जीवाले, मोचियों,और गरीब रिक्शेवालों,रद्दी पेपर वालों और घर में काम करने वाली बाइयों से महज
एक- दो रुपये के बहस करती हैं और बेचारा गरीब जब हार मन जाता है तो वे अपने पर गर्व महसूस करती हैं.और वहीं दूसरी तरफ जब बड़े शो रूम जाती हैं तो उनको कई हजारों का चूना लगता है वहां वे बहस करना अपने झूठे शान के खिलाफ समझती हैं ....
लोगों की ऐसी संकीर्ण मानसिकता समझ से परे है....
behtreen ...
भाई अच्छा लिख रहे हैं.किस्सा-गोई खूब!!!
दुआ है, जोर कलम और ज्यादा!
kissa majedaar raha...duniya ka ek aur rang...kisse ne ant tak bandhe rakha.
rochak, behtareen..........,dunia me aise logon ki kamee nahi jo doulat peeth par baandhkar le jaana chahte hain.
एक उम्दा प्रस्तुति....शुभकामनायें....
एक उम्दा प्रस्तुति....शुभकामनायें....
श्याम जी हमें तो यह लगता है कि इनके घर के सदस्यों पर क्या बीतती होगी , खासकर तब जब कोई परिवार का सदस्य मुसीबत में आता होगा या बीमार पड़ जाता होगा ! - आचार्य रंजन
बेचारा बदनसीब! सब कुछ होते हुए भी बेकार!
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