साम्प्रदायिक हिंसा बिल ही क्यों, राजनैतिक हिंसा बिल क्यों नहीं !
साम्प्रदायिक हिंसा बिल ही क्यों, राजनैतिक हिंसा बिल क्यों नहीं ? आज कौन नहीं जानता है कि ज्यादातर हिंसाओं व दंगों के पीछे राजनैतिक पृष्ठभूमि होती है, राजनैतिक समीकरण होते हैं, राजनैतिक इरादे होते हैं, राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं होती हैं ? यदि आज हम साम्प्रदायिक हिंसा की तह में जाने की कोशिश करेंगे तो अंत में हमें कठोर व ठोस राजनैतिक धरातल ही मिलेगा ? अगर आज हम गौर करें, गंभीर चिंतन-मनन करें तो देश में हुए अब तक के तमाम दंगों में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में राजनीति पाँव पसारे हुए जरुर मिल जायेगी ?
जब हम जानते हैं, मानते हैं, महसूस करते हैं, तो फिर कान को घुमा-फिरा कर पकड़ने की जरुरत क्या है, सीधे-सीधे कान को क्यों नहीं पकड़ते अर्थात राजनैतिक हिंसा बिल पर चर्चा क्यों नहीं करते, क़ानून क्यों नहीं बनाते ? गर, एक बार आज हम ठोस व सकारात्मक कदम उठा लें तो फिर देखें किसकी मजाल होती है दंगों व हिंसा की ओर रुख करने की ? आज हमें, हम सब को, हमारी सरकारों को अत्यंत गंभीर रूप से चिंतन-मनन करना चाहिए तथा एक ऐसा क़ानून बनाना चाहिए जिसके अस्तित्व में आने के साथ ही लोगों के दिलों-दिमाग से हिंसा व दंगों का भूत अपने आप उतर जाए।
अगर आज हम ढीले पड़ गए तो दिल और दिमाग को दहला देने वाली हिंसात्मक घटनाएँ होते रहेंगी, दंगे-फसाद होते रहेंगे, असहाय, निर्दोष व कमजोर लोग मरते रहेंगे, और हम यूँ ही निरंतर दुःख व संवेदना व्यक्त करते रहेंगे। जहां तक मेरा मानना है कि आज भी ढेरों क़ानून हैं जो हिंसा व दंगों पर प्रभावी हैं किन्तु उनका क्रियान्वयन अपने आप में सवालिया है, यहाँ मेरा अभिप्राय क़ानून का माखौल उड़ाना नहीं है वरन उसके क्रियान्वयन की सजगता की ओर इशारा करना मात्र है, सीधे व स्पष्ट शब्दों में मेरा अभिप्राय यह है कि क़ानून का क्रियान्वयन जितना निष्पक्ष व पारदर्शी होगा क़ानून उतना ही ज्यादा मजबूत व प्रभावी होगा।
जहां तक मेरा मानना है अर्थात मुझे प्रतीत होता है कि वर्त्तमान दौर में हमारे देश में साम्प्रदायिक हिंसा के हालात लगभग नहीं के बराबर हैं, और यदि कहीं हैं भी तो बहुत ही कम हैं, ठीक इसके विपरीत राजनैतिक हिंसा के हालात तो कदम कदम पर दिखाई देते हैं और इसकी मूल वजह आपसी सत्ता रूपी राजनैतिक प्रतियोगिता है। ऐसा कोई दिन नहीं है, ऐसा कोई गाँव या शहर नहीं है जहां आयेदिन राजनैतिक टकराव के हालात नजर नहीं आते ? राजनैतिक रस्साकशी व सत्तारुपी महात्वाकांक्षाओं के कारण घर, परिवार, गलियों, मोहल्लों, गाँव, शहर, लगभग सभी जगह देखते ही तनावपूर्ण हालात नजर आ जाते हैं।
आयेदिन हो रहे राजनैतिक विरोध स्वरूप नेताओं के पुतला दहन के आयोजन, गाँव व शहर बंद के आयोजन, काले झंडे दिखाने के आयोजन, मांग व विरोध स्वरूप बल प्रदर्शन के आयोजन, रेल रोको आयोजन, चक्काजाम, इत्यादि ऐसे ढेरों राजनैतिक कार्यक्रम हैं जिनमें या जिनके दौरान हिंसात्मक घटनाएँ देखी जा सकती हैं, इस दौरान होने वाली हिंसात्मक घटनाओं के स्वरूप छोटे न होकर अक्सर विशाल ही देखे गए हैं तथा जिनके परिणामस्वरूप लाखों व करोड़ों की व्यक्तिगत व राष्ट्रीय संपत्ति आगजनी, लूटपाट व तोड़फोड़ के द्वारा स्वाहा हो जाना बेहद आम है। और तो और इस तरह के ज्यादातर राजनैतिक घटनाक्रम साम्प्रदायिक हिंसा के कारण भी बनते हैं।
अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा देखा गया है, अक्सर जांच के निष्कर्षों पर यह महसूस किया गया है कि ज्यादातर मामलों में साम्प्रदायिक हिंसा की पृष्ठभूमि में राजनीति व राजनैतिक स्वार्थ कारण बने हैं ? यदि ऐसा हुआ है, ऐसा हो रहा है तो यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के लिए बेहद खतरनाक है, इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना तो यह है कि आज के बदलते परिवेश में, संवेदनशील हालातों में, धर्मनिरपेक्षता व लोकतंत्र की मजबूती के नजरिये से साम्प्रदायिक हिंसा बिल के स्थान पर राजनैतिक हिंसा बिल पर बहस होनी चाहिए, राजनैतिक हिंसा व दंगों की रोकथाम के लिए एक सशक्त क़ानून बनना चाहिए ?
2 comments:
राजनैतिक कुटिलता नंगा नाच दिखाती है
राजनीत एक ऐसा स्थान है जहाँ कभी न कभी सब की गर्दन फसती जरूर है..
prathamprayaas.blogspot.in-
Post a Comment