Monday, December 5, 2011

चुनावी लफड़े हैं ... मजबूर हूँ !!

उफ़ ! विधानसभा का चुनाव है
पहले दिन से ही -
रोज, हर रोज, दोनों पहर
कभी प्रत्यासी -
तो कभी उनके चेले-चपाटे
मेरे घर -
और मेरे चक्कर लगा रहे हैं !

कल रात से
एक अलग ही सिलसिला चल रहा है
एक आया -
कम्बल और कुछ कपडे लत्ते दे गया है !
दूसरा आया -
दारू की तीन-चार बोतलें और एक बकरा -
मेरे आँगन में बाँध गया है !

तीसरा आया -
वो भी सुबह सुबह, कह रहा था
दादा, जे साईकल की चाबी धरो बाहर खड़ी है
समझ लो, आज से तुम्हारी है !

सब के सब कह गए हैं
इस बार, तुम्हारा वोट जरुरी है
चुनाव जीतना -
बड़े भईय्या की मजबूरी है !
क्या करूं -
किसे दूं, किसे न दूं ... वोट !
सच ! चुनावी लफड़े हैं ... मजबूर हूँ !!

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सुनिये सबकी,
करिये मन की।