Friday, November 4, 2011

... कोई हिसाब-किताब नहीं है !

वो सूने कोने में बैठ, शायरी लिख रहा था 'उदय'
और हम भीड़ में, दाद पे दाद दिए जा रहे थे !!!
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चरखे की चकरी बन के, घन-घना रहे हैं लोग
न सूत है, न कपास, फिर भी बज रहे हैं लोग !
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न दर है, न छत है, और न ही दीवार है 'उदय'
उफ़ ! तम्बू को ही, हवेली समझ रहे हैं लोग !
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चलते चलते धरने, प्रदर्शन, यात्राएं हो जाएं यारो
सच ! 'सांई' जाने, किस घड़ी बुलावा आ जाए !!
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काश ! सबब दोस्ती का वो समझ गए होते
कभी इस, तो कभी उस, दर पे नहीं होते !!
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कितना भी, क्यूँ न अंधकार हो, चले चलो
दिन दूर नहीं, जब उजाले ही उजाले होंगे !
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मरने के बाद सारा शहर गुणगान कर रहा है 'उदय'
ज़िंदा थे, तब शहर में शमशानी सन्नाटा क्यूं था !!
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उत्तर प्रदेशी अखाड़े में, खूब चहल-पहल है यारो
सच ! लगे है कि दंगल में भी खूब मजा आयेगा !
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क्या खूब सौदागिरी चल रही है मेरे मुल्क में 'उदय'
सरकार, सरकार नहीं, व्यापारिक संस्थान हुई है !
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सच ! वो सरकार में हैं, पर सरकारी नहीं हैं
ये कैसी सरकार है, जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं है !

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