कल रात मैंने
एक बहुत बड़े लेखक को -
अपनी एक कविता के पास खड़े देखा
उसे देखकर मैं डर सा गया
लगा ऐंसे, जैंसे -
मैंने कुछ उट-पुटांग तो नहीं लिख छोड़ा है !
मैं गुप-चुप ढंग से करीब पहुँच कर
छिपकर बैठे बैठे देखने लगा
पहले तो साहब -
खड़े खड़े कविता देखते रहे
फिर, उन्होंने झुककर उसे उठाया
पढ़ा ...
फिर नीचे रख दिया !
कुछ देर बाद, फिर से उठाया
फिर से पढ़ा, पढ़कर ...
कुछ देर अपनी मुंडी ऊपर-नीचे हिलाते रहे
फिर उसे, नीचे रखकर आगे बढ़ गए
चार-छ: कदम आगे चलकर
फिर पीछे लौट आए
यह देखकर, मेरी साँसें तेज चलने लगीं !
सच कहूं -
मैं बहुत भयानक तरीके से डर गया
सोचा, कि कोई बहुत बढ़ा गुनाह हो गया, मुझसे
मैं सहमा सहमा देखता रहा
उन्होंने फिर से कविता उठाई
और देखते देखते, कुछ गुच्च-पुच्च किया
और गुच्च-पुच्च कर चले गए !
क्या किया, वो ही जानें, मैं तो डर कर
घर आकर सो गया
सुबह उठा तब हिम्मत की -
और पास जाकर देखा
उन्होंने कविता को "लाईक" किया था !
वाह री ... मेरी प्यारी गुच्च-पुच्च कविता
सच ! तूने तो मुझे डरा ही दिया था !!
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