दोस्तों को, दोस्ती को
सदा ! सदा
ऊपर रखा हमने
मगर वो दोस्त थे
जो
खुद-ब-खुद
सच ! नीचे चले गए !
उफ़ ! हम कितने नादां थे
वो दोस्त थे
जिन्हें -
हम 'खुदा'
और वो खुद को
सदा ! शैतां समझते थे !
गर वो
शैतां के शैतां बने रहते
तो, शायद, फिर भी
वो, दोस्त बने रहते
मगर, अफसोस
उनकी फितरतों ने
उन्हें
न दोस्त, न दोस्ती ... !
न जाने, क्यों, किसलिए
वो फितरती हुए थे
होते थे सांथ
हर पल, हर घड़ी
पर, कुछ न कुछ फितूर
चलते, फिरते, रहते -
थे उनके जेहन में
उफ़ ! अब क्या कहें
न दोस्त, न दोस्ती ... !!
2 comments:
बेहतरीन।
"पानी पियो छान के दोस्त बनाओ जान के" दोस्ती के अनुभव का अच्छा चित्रण्…॥
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