Monday, February 1, 2010

दोस्ती ...

वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर,
हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें, अपना
हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद 'जहर',
रोज हमको पिला रहे हैं !

अब हर कदम पर देखता हूं,
उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर ,
अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते,
तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता !

संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त',
और दुश्मन किसे कहें।

7 comments:

shama said...

Aah!

डॉ टी एस दराल said...

दोस्त के रूप में दुश्मन ---खतरनाक।

sandhyagupta said...

अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त', और दुश्मन किसे कहें।

Ye sawal to shayad sabko mathta hai.

संजय भास्‍कर said...

आपकी रचना कहीं ना कहीं बहुत भीतर तक छू गयी ।

संजय भास्‍कर said...

वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर, हमसे मिलते रहे
............LAJWAAB..........

दिगम्बर नासवा said...

अब हर कदम पर देखता हूं, उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर , अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते, तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता ...

अच्छी रचना है ........ कुछ दोस्तों से भी बच कर रहना अच्छा है ............

मनोज भारती said...

दोस्त ही दुश्मन हो जाते हैं,जिन्हें अपना माना वही बेगाने हो जाते हैं ।...